1991 में धूम धाम से इंडस्ट्री में आए अजय देवगन आज भी मैदान में जम कर डटे हुए हैं। हाल के दिनों में उन्होंने दृश्यम और शैतान जैसी फिल्मों में टिपिकल बॉलीवुड हीरो की छवि को ड्रॉप करते हुए किरदार अनुरूप ढलने की भी कोशिश की है, पर हाल ही में आई मैदान में वो पूरी तरह इस कोशिश में सफल नजर आए हैं। व्यक्तिगत रूप से कहूं तो मुझे लगता है कि अपनी हालिया प्रदर्शित फिल्मों में से, मैदान में वो अपने फुल फॉर्म में दिखे हैं, पूरी तरह सैयद अब्दुल रहीम के किरदार में रमे हुए।
अजय के अलावा भी इस फिल्म में बहुत कुछ ऐसा है जिसपर चर्चा होनी चाहिए थी, पर दर्शकों ने इसे वांछित प्यार क्यों नहीं दिया समझ से बाहर है। फिल्म में रहमान का संगीत काफी अंडर रेटेड है, लेकिन BGM हो या गाने रहमान कमाल करते हैं। फैदूर ल्यास की स्पोर्ट्स सिनेमेटोग्राफी की जितनी तारीफ की जाए कम है। अकसर स्पोर्ट्स फिल्मों में खासकर अगर खेल फुटबॉल जैसा तेज़ रफ्तार का हो तो अक्सर कैमरा इमोशनल ड्रामा की तरफ ज्यादा झुक जाता है, और अगर आप निष्पक्ष होकर खेल को कवर करते हो तो भावनात्मक रूप सीन पिछड़ जाता है, पर यहां दोनों फैक्टर्स बिल्कुल परफेक्टली एक्सीक्यूट हुए हैं। खेल का परिणाम जानते हुए भी आप खेल में पूरी तरह इन्वॉल्व हो जाते हैं और भावनात्मक रूप से पूरी तरह जुड़े रहते हैं।
मैन लीड में प्रियमणि और गजराज राव ब्रिलियंट हैं लेकिन बाकी भी कुछ कम नहीं हैं विशेषकर टीम इंडिया के सभी खिलाड़ी। वर्ल्ड बिल्डिंग कुछ जगहों पर नकली सी लगती है पर costumes और कलर्स पर अच्छा काम हुआ है। मैदान अब प्राइम विडियो पर उपलब्ध है। मैं तो इस फिल्म की सिफारिश अवश्य करूंगा क्योंकि ये एक ऐसे देशभक्त नायक की अनसुनी कहानी कहती है जिसे देश लगभग भुला चुका है। क्यों इन्हें आज तक कभी अर्जुन पुरस्कार के लिए नामांकित नहीं किया गया। आज हमें एक और रहीम साब चाहिए जो गर्त में पड़े भारतीय फुटबॉल में संजीवनी फूंक सके।
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